Sunday, September 11, 2011








बारिश और गुज़ारिश
--निखिल जोशी 

रात के पिछले पहर
दस्तक दे रही बारिश
सिनेमें  संजोयी, सोई
सदीयों पुरानी कोई
ज़हन से उठी गुज़ारिश

बारिश की बूंदों का एक झूंड
कर रहा मशक्कत
दरिचो की दरारों से
कमरे में कदमपेशी की
ख्वाब सरे जाके छुप गए
मध्धम सी जलती लौ के
नीचे के अंधेरो में
मेरे ही नाखूनों की चोंट से
बिस्मिल हुआ मेरा अक्स
जाके लिपट गया आईने से
उसी के खून के कुछ कतरे
फर्श पे पड़े है यूं गूमसूम
 
मेरे अन्दर का आदमी
अपनी ही पीठ में चुभी
खंजर निकालकर
ढूढता फिरता अपने कातील को
बोजिल बनी ये रात
ख़त्म होने को है चाँद
खिड़की से दीवारों पे उतरा पानी
बना रहा है कुछ शक्ले वहीँ
यूं ही लगातार तेज़ रफ़्तार
है बारिश और गुज़ारिश

--निखिल जोशी
 

 

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