Tuesday, February 28, 2012





कुर्सीसे अलमारी तक
 

संद्दूक से नीकाली
कुछ बेश किमती चीजों की तरह
यादोंको सीनेमें समेटके बैठा हुं
उसकी आहटका भी अबतो
रहा नहीं इंतज़ार फिरभी
माँजीकी चादर लपेटके बैठा हुं
वकतकी मानिंद अबतो
मेरे जज़्बात भी गुज़रते जा रहे है
अब भी मुजे तराशनेको
लोग भी कैसी कैसी
तरकीब ला रहे है
वो देखिये नींद भी
मेरी चारपाई के कोने पे खड़ी है
उसे भी अबतो मेरी पलकों पे
ऐतबार नहीं है
ख्व़ाब तो सरे मायूस होकर
दरीचोके बाहर ही अटक गए है
आँगन में खड़े खड़े पेड़ भी
दरवाज़ेसे निकलती हवाका
रुख़ पलट गए है
मेरे घरमें घौसला बनाके
रहेनेवाले परीन्दोने भी
ठिकाना बदल लिया है 
आनेवाले पलने भी धोखेसे मुजे
हरबार मेरे हाथमें बीता हुआ कल ही दिया है
बस इन सारे एह्सासोंको एक गठरिमें बांधके
रख दुंगा अभी अलमारी में
लेकिन फिर सवाल तब उठता है
जब हर शाम मजबूरन
इसी गठरी को खोल के बैठ जाता हुं
फिर वाही मैं
वाही मेरे कमरेकी आबोहवा
अबतो यही
कुर्सीसे अलमारी तक की
चार कदम की दूरी
रह गयी है ज़िन्दगी पूरी
साँसों की रफ़्तार के साथ
गठरी बांधना खोलना
कोई तो अब इस अलमारी को
गठरी समेत दे दो कबाड़ी को
ताकि ये चार कदम चलना भी ना हो
और ज़िन्दगी यहीं रुक जाए
चारपाई पे रुकी नींद की गौदमें
ख्व़ाब भी लौट जाए अपने शहर

--निखिल जोशी

 

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